बजे होंगे कुछ सात या साढ़े-सात सुबह के, जब घंटी की आवाज़ से नींद टूट गयी। जहाँ तक याद था, कचरे का डब्बा रात में ही बहार रख दिया था, तो इस समय जमादार का घंटी बजाने का सवाल नहीं होता। एक बार सोचा जाने दो, किसी बच्चे की शरारत होगी। मगर जब दूसरी बार घंटी बजी तो नींद को टा-टा करना ही पड़ा।
खैर जैसे-तैसे, उठते-उठाते, बचते-बचाते, दरवाज़ा खोल ही दिया, तो सामने साक्षात जमादार-भैय्या के दर्शन हुये। लेकिन वो कुछ अलग दिख रहे थे, कपडे साफ़ थे, वो कुर्ता-पैजामा पहने हुए थे। आज तो चेहरा भी दिखाई दे रहा था, जो अक्सर किसी कपडे या गमछे से ढका रहता। एक अजीब सा तेज उनके personality से प्रवाहित हो रहा था। सच बोलै जाये तो मुझे कुछ मिनट लगे, उन्हें पहचानने मे। उनकी यह वेश-भूषा देख कर नींद गायब हो गयी।
हाथ जोड़के, शीतल विनम्रता से जमादार-भैय्या ने फ़रमाया, “साब, हैप्पी दिवाली, साल मुबारक”। यह सुनते ही, मेरे दिमाग की बत्ती जल गयी, मुझे पता था आगे क्या आने वाला था, मगर फिर भी, बनावटी अल्हडपने से जवाब दे दिए, “आप को भी वैरी हैप्पी दिवाली”। अब जबकि हम दोनों ने दो राष्ट्र-अध्यक्षों की तरह दिवाली ग्रीटिंग्स की फाइलें हक्ष्ताक्षर करके बदल ली थी, एक सन्नाटा सा छा गया, जैसे हम किसी शोक सभा में मौजूद हो। सच बताऊ तो मैं वापस बिस्तर पे जाना चाहता था, और हमारे हैंडसम जमादार भैय्या को भी कम जल्दी ना थी। कई और घंटियां बजानी थी, एक घर पे थोडिना इतना टाइम बर्बाद कर सकते थे। “साब, दिवाली की बक्शीश” कह कर वो सीधे मुद्दे पर आ गए।
अगर सत्य कहु मुझे इस बेवाकी पे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ, यह कोई नयी बात ना थी। बड़ी दीपावली का अगला दिन, नए साल के रूप में मनाया जाता है। यह, एक गुजराती परंपरा हैं, जो बाकी सारी गुजराती चीज़ो की तरह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हो गयी है। इस दिन सारे काम-करने वाले लोग निकलते हैं, अपने हक़ की बक्शीश लेने। भले ही आपकी दिवाली कैसी भी गुजरी हो, अगले दिन हैप्पी-दिवाली बोलने वालों की कमी नहीं होती। भले ही आपकी गर्दन पर चाकू नहीं रखा गया हों, मगर वो प्यारी मुस्कान की नोक कुछ कम ज़ालिम ना थी। एक तारीकी से कहिये तो यह sanctioned extortion या मुम्बैया भाषा में कहे तो एक प्रकार की वसूली थी।
जमदारजी की बात सुनके मैंने पापा की पेंट जो अलमारी पर लटकी थी, उनकी जेब से वॉलेट निकाल के बीस रुपैये थमा दिए। रात को दुश्मनी हमले के पहले हम लोगों ने पूरी स्ट्रेटेजी बनायीं थी नये साल के आगमन के लिये। बक्शीश की शुरुवात बीस से होगी, और चूँकि उस समय कौन बनेगा करोड़पति का ज़माना ना था, तो अगला पड़ाव २५, ३०, ४० और उसके आसपास ख़तम हो जाता। हम पिछले कई दिनों से छोटे denomination के नोट इक्कठे कर रहे थे।
अब भले ही सुबेरे के सात बजे हों, मगर प्लान तो प्लान ही होते हैं, तो मैंने बीस का एक गुलाबी रंग वाला नोट जमादार-भैय्या को थमा दिया। वो नोट देखते ही, उनकी मुस्कान गायब सी हो गई, मुझे देखते हुए कहा, “क्या छोटे-साब मजाक क्यों कर रहे हो, दिवाली बक्शीश हैं साल में एक बार आती है और हम आपके घर का कूड़ा पूरे साल भर लेके जाते है। थोड़ा सोच-समझ के दो”। उसके शब्दों में करुना कम और क्रोध ज्यादा जान पर रहा था। पुरे साल कचरा उठाने की बात, कुछ धमकियाने जैसी लग रही थी। खैर पिछली रात हमने में पैसों की किस्तों के साथ, आने वाले वसूलिकारों की औकात की भी ग्रेडिंग की थी। उसके मुताबिक, जमादार-भाई A+ लिस्ट में थे। मतलब उनको नाराज़ करना हमारे आने वाले साल की लिए हानिकारक होगा। तो क्या, एक दस की पट्टी और निकाल के थमा दी। मुस्कराहट अभी भी वापस नहीं आयी थी, तो एक और दहले का दांव लग गया। इस बार थोड़े बादल हटे और सूर्य की किरण से हल्का सामना हुआ। खैर, एक और दससी का पत्ता थमा कर, matter को वही बंद कर दिया। मुझे पता था की मेरी negotiating skills से मेरे परिवारजन खुश ना होंगे मगर मैं खुश था अपनेआप से। पुरे दिन में, सिर्फ यह एक मौका था जब मैं पाकेट में हाट डालके, चौड़ा बन सकता था। बाकी टाइम पे तो मम्मी या पापा decision लेंगे, किसे कितना थमाना हैं।
और कुछ वैसा ही हुआ, पूरे दिन नये-नये प्रतिनिधि आते रहे, “दिवाली मुबारक, साल मुबारक” कहके, Gangs of Wasseypur स्टाइल में “कहके लूंगा” करते रहे। जैसे पोस्टमैन आये, वो भी टोली में, तीन-चार डाकिये साथ-साथ। वो अपने साथ चिट्ठियों का छोटा गठर भी लाये थे, जो वो शायद पिछले एक महीने से इकट्ठे कर रहे होंगे। उनकी यह तरकीब एकदम दाद देने लायक थी, मतलब इतनी गहरी प्लानिंग, इतने आगे की सोच। खैर, वह भी A -लिस्ट में थे, तो उनकी दिवाली – हैप्पी ही रही। फिर Electricity वाले भैय्या भी आये, उनकी ऊपर की जेब में एक बड़ा सा cutter था, जो शायद याद दिलाने की लिए था की आपकी बिजली के बिल payment करने की तारीख और connection कटने के बीच में सिर्फ और सिर्फ दिवाली की शुबकामनाएं का फर्क था। बिजली वाले महानुभाव के बाद, MTNL के पांडेजी पधारे। चक सफ़ेद रंग का सफारी सूट पहने, और ओठो पे कलकत्ता-१२०, कच्ची-सुपारी और हरी-पट्टी, की लालिमा जगमगा रही थी। पांडेजी, अगर कहे तो एक तरह से कर्मचारी डायनासोर प्रजाति के Tyrannosaurus थे। उनकी नाराज़गी काफी भारी पर सकती थी। फ़ोन के देवता, और कम्युनिकेशन के फ़रिश्ते थे पांडेजी। उन्हें तो एक मिठाई का या ड्राई-फ्रूट्स का डब्बा भी दे दिया जाये तो कम ही होगा — उनके विचार से। खैर उनका पूरा सत्कार किया गया, चाय पिलाई गयी, फिर प्यार से एक सौ की नोट पुरे श्रद्धा से अर्पित की गयी। पांडेजी चढ़ावे को स्वीकारते हुए ख़ुशी से चल दिये। बाद में BMC वाले आये, वह भी चार-पांच थे। फिर BMC के वाटर-डिपार्टमेंट से भी लोग आये हमें हैप्पी दिवाली करने।
सबसे मजा तो तब आया जब, पोस्टमेन की पोशाक में एक और महाशय घर पधारे, जब हमने बताया की ‘डाकिया-डाक-लाया’ था और बक्शीश भी ले गया था, तो वो जरा भी अचंभित ना हुये। “हम तार मतलब टेलीग्राफ वाले हैं, पोस्टमैन नहीं ” उन्होंने ऐलान किया। ओह, तो यह वो यमदूत थे जो अक्सर बुरी खबर लाते थे। अब जबकि चूँकि टेलीग्राम उतने नहीं आते थे, फ़ोन अब घर में था — request नंबर नही, तो हम भी ज्यादा घबराये नही। किसी तरह बीस-तीस में मामला सुलट ही गया।
इन सब के आने-जाने के बीच केशव, हमारा प्रिय गैस-सिलिंडर वाला भी आ पंहुचा। केशव का महत्त्व हमारे ज़िन्दगी कुछ ज्यादा ही था। जिस किसीने केरोसिन का स्टोव का प्रयोग किया हैं, वही सचमुच में गैस के सिलिंडर की महत्वता को सही मानो में समझ सकता है। केरोसिन वाला स्टोव सिर्फ मुश्किल ही नहीं, बल्की खतरनाक भी है। उसकी तुलना में गैस वाला चुला, एकदम स्वर्ग का एहसास दिलाता है। चूँकि उन दिनों दूसरे सिलिंडर का प्रचलन नहीं था, इस लिए गैस-सिलिंडर की डिलीवरी करने वाला शक़्स बहुत ही अहम् था। जब एक सिलिंडर ख़तम होने पर ही, दूसरा बुक किया जाता था। यह पूरा प्रकरण कुछ इस प्रकार होता था — सिलिंडर में गैस खत्म, चौकना, झलाना, घबड़ाहट, भगदड़, इन सबके बीच में एजेंसी में नयी गैस बुक करना (बी ११०९९) और फिर अंतिम पड़ाव था केशव की खोज।
पुरे इलाके — मतलब, गोकुल आइसक्रीम से लेके St Teresa स्कूल तक — गली, गली भटकना सिलिंडर की गड़गड़हट सुनते हुए, केशव को ढूंढ़ते रहे, सुबह हो या शाम। उसकी पुरानी रेढ़ी उसकी सबसे बड़ी पेहचान थी, जिसमे सिलिंडर लदे रहते थे । कभी-कभार क़िस्मत अच्छी हो तो आधा-एक घंटे में केशव मिल जाते थे, और कभी-कभी एक दिन भी झोकने पर दर्शन ना होते। यह सब प्रभु की, या कहे तो केशव की लीला थी। अंत में जब दर्शन होते, तो आँख में आंसू से आ जाते, “केशव, तुम कब आओगे? कबसे ढूंढ रहे हैं? खाना-पीना बंद हैं”। वो किसी महात्मा की तरह देखता और थोड़ा मुस्कुराता, “शरीर नश्वर हैं, आत्मा अटल हैं” कहने वाले स्टाइल में कहता – “आता हु दो घंटे बाद”। फिर क्या, केशव को दयनीय और विनम्र भाव से निवेदन करते, और घर पे इंतज़ार शुरू होता। कई बार केशव अपने वादे अनुसार टाइम पे आ जाता, और कई बार ना आता। आपकी किस्मत कुछ उस वैटलिस्ट वाले यात्री की तरह होती, जिसे यह मालूम ना होता, की आज वो ट्रैन में सफर कर पायेगा या नहीं। खैर, जब भी केशव आता, तो अपने कंधो पर सिलिंडर लाद के लाता। दिखने में केशव, काफी ordinary सा इंसान था, या कहे तो उससे भी थोड़ा कम। पांच फ़ीट का कद होगा, उम्र पिछले १० सालों से पचास पर ही अटकी मालूम पड़ती थी, दुबला-पतला शरीर, बाल गायब, और एक रुष्ट-पुष्ट मूछ। उसको देख के ऐसा लगता ना था, की वह पांच किलो की गेहू की थैली भी उठा पायेगा या नहीं, मगर वह बड़े आराम से सिलिंडर को अपने कंधे पे दालके घूमता-फिरता था। कभी कभी तो ३-४ माले की बिल्डिंग भी चढ़ जाता था। वो एकदम मेरे कॉमिक के सुपरहीरो जैसा था, सिर्फ उनके जैसा डील-दोल ना था। केशव आता, सिलिंडर बदला जाता, kerosene वाला स्टोव वापस किसी कोने में जाता, और हमारा जीवन पुनः पहले जैसा हो जाता।
साल में सिर्फ एक बार, मात्र एक बार, केशव खुद हमारे द्वार पधारते। एक संकोच भरी मुस्कान होती उसके मुँहपे, ठीक उसी तरह जब कोई मंत्री अपनी constituency में वोटो की भीख मांगने निकलता है और जनता को अपनी निष्ठुरता का आश्वाशन देता है। मंत्री महोदय अंदर से जानता हैं की हम सब गधे और कुत्ते है, जो कभी उसे वोट ना देंगे — उसका बंदोबस्त तो झुग्गी-झोपड़ी डिपार्टमेंटल स्टोर से १०० रुपैये piece में हो चूका है। मगर फिर भी मंत्रीजी हमें झूटी किफ़ायत देने ज़रूर आता, पांच साल में एक बार। केशव की मुस्कराहट में भी वही झिझक थी। पर हमारे मन में कोई संदेह या हिचकिचाहट ना थी, केशव A+ कैंडिडेट थे, तो उनको खुश करके भेजना जरूरी था।
एक-दो साल BMC के गटर विभाग से भी, दिवाली-greeters आये थे, मगर वो उपवाद थे। एक बार तो पास वाली चौकी से भी कुछ हवलदार आ गए, हम तो काफी घबरा गए थे उनको दरवाज़े पे देख। फिर उन्होंने दिवाली की शुभकामनये दी तो सांस में सांस आयी। हमारी बिल्डिंग काफी पुरानी थी, ठीक सड़क पर, वहा कोई चौकीदार वगैरह नहीं था, तो कोई भी हमारे घरों के दरवाज़ों तक निसंकोच और बेझिझक आ सकता था।
इस साडी भीड़ में, एक बड़ा ही दिलचस्प शक्शियत त्योंहारों पे ज़रूर दर्शन देती थी। वो हैप्पी-होली हो, या हैप्पी-दशेरा, हैप्पी-ईद, या यह कहिये तो सारे त्यौहार हमारे साथ ही मानते थे। उन महाशय का नाम तो पता ना था, मगर उनकी छवि बहुत अच्छे से स्मृति में क़ैद हैं। वो भाईसाब कुछ ४०-५० के होंगे, मध्यम कद, गठीला बदन, गेहुआ रंग, बाल तेल से एकदम सेट, मुँह पे छोटे-मोठे दाग (कुछ अमरीश पूरी और ओम पूरी के बीच में), कॉटन पैंट के ऊपर एक भड़कीले रंग की बूशर्ट – नारंगी या लाल रंग की। हात में एक नोटपैड – वह जो हम परीक्षा में इस्तेमाल करते हैं, एक फॉर्म के साथ। वो फॉर्म अक्सर खाली रहता, बस एक बाघ का चित्र ऊपर बड़े में दिखाई देता। उनकी गले में एक डोर से पेन लटका रहता, और बुशर्ट की जेब से कुछ identity कार्ड जैसा सेफ्टी पिन से अटका रहता। वो भाईसाब इस कदर गंभीर रहते थे, जैसे मनो census अधिकारी हो। वो बाकियों की तरह ना थे, वो सिर्फ त्यौहार का नाम भोंक सा देते, हैप्पी वगैरह अभिवादन की ज़रूरत ही नहीं। अब जबकि दिवाली थी, तो द्वार खुलने पर “दिवाळी” ऐसा रूखे स्वर में घोषणा कर दी। अगर हिमाकत से पूँछ लिया की कौन, तो फिर रौद्र स्वर में चिड़चिड़ाहट से गुर्रा देते “शिव सेना”। इस के आगे कोई वार्तालाप ना होती, कोई नमस्ते-शमास्ते कुछ नही।बस हम कोई १०-२० थामे देते, वो नोटपैड में कुछ लिखते, पता नहीं क्या और फिर चले जाते। बस बात वही खत्म, पैसों को लेके कोई बहस बाज़ी नहीं। कभी हमने ये पूँछ-टाँच करने की हिमाकत नहीं की, की ये “शिव सेना” क्या हैं? वह ठाकरे साब की पार्टी, कोई स्थानीय संगठन, कोई सोसाइटी क्लब, या मासिक पत्रिका? उनके व्यवहार से ऐसा महसूस भी नहीं होता की उनको यह सब सवाल-जवाब पसंद आएंगे, तो हमने भी उनकी इच्छा के विपरीत कुछ ना किया। यह सिलसिला टूटा कैसे, वो एक और भी दिलस्चप वाकया हैं — फिर कभी के लिये।
मुझे व्यक्तिगत रूप से बस एक वर्ग से घबराहट या संकोच होता था, वो थे हिजड़े या जैसा आजकल कहते हैं — किन्नर। ऐसा नहीं की वो कुछ गलत या बुरा करते थे, मगर उनके बोलने और बर्ताव से एक अंतर अपनेआप ही आ जाता था। वो भी शायद कुछ ऐसा ही महसूस करते हो हमारे बारे मे। पता नहीं, बस वो ३-४ बार जोरजोर से तालिया बजाते और दिवाली पे आशीर्वाद देते। और उनकी मांग बाकियों की तरह सिर्फ पैसों की ना होती, उन्हें साडी-ब्लाउज-मिठाई सब चाहिये। उन्हें पचास रुपैये में भी संतुस्टी ना होती, काजल-वाली आँखे बड़ी बड़ी करके के कुड़कुड़ाते रहते। फिर चल बनते।
हमारे आखरी दिवाली के शुब्चिन्तक होते थे, हमारे लक्षमण अन्ना। वो हमारे घर में एक दशक से भी ज्यादा से बर्तन धोना, और झाड़ू-पोंछा करते थे। लक्षमण की उम्र होगी कुछ ४०-५०, सर पे बाल सिर्फ नाम मात्र के थे, चेहरा गोल, सावला रंग, और एक अजीब सी शांति पुरे व्यक्तित्व पर हावी रहती। वो हमेशा एक शॉर्ट्स पहनते थे, खाखी रंग की, और एक साधारण सी टी-शर्ट जो किसी ने भेँट की हो। लक्षमण हैदराबाद से थे, हिंदी ठीख-ठाक बोल लेते थे। चूँकि उन्होंने हमे उन दिनों से देखा था जब हम त्रिकोनी लंगोटो में सुशु और बाकी सब करते थे, तो एक पारिवारिक बड़प्पन भी था व्यवहार मे। लक्षमण ज्यादा कुछ बोलते ना थे, एक बार सुबेरे ११ बजे, और फिर रात १० बजे बर्तन-झाड़ू करके चल बनते थे। साल में एक बार लम्बी छुट्टी होती एक-अध् महीने की, जिसमे कोई बदली वाला काम करता। कभी-कबाद जब लक्षमण खुश होते तो थोड़ा मुस्कुरा देते, बस। रात में बर्तन धोने के बाद, वो दरवाज़े की दहलीज़ पे बैठ कर थोड़ी देर टीवी देखते। दिवाली के अगले दिन, वो नयी शर्ट और पैंट पहन कर आते थे, एकदम दमदार दीखते थे। हम भी उन्हें इस नये रूप में देख हम सब हैरत में आ जाते थे, “वाह वाह लक्षमण,” कह कर थोड़ा छेड़ते। वो भी शर्म से मुस्कुरा देते। खैर सारी बक्षीसों में लक्षमण की बक्शीश सबसे महत्त्वपूर्ण और भारी होती थी।
वक़्त उनदिनों से आजतक बहुत बदल गया है। त्योहारों में एक अतिमीयता सी होती थी, जो आजकल लुप्त हैं। उन दिनो, हम ज़मीन से जुड़े रहते थी, लोगों से जुड़े रहते थे। अब तो हम गगन-चूमती इमारतों में क़ैद है, ना पोस्टमैन हैं, ना जमादार, ना BMC के अधिकारी या राजनैतिक पार्टियों के छोटे पदाधिकार। अगर रह गयी हैं तो बस घर पे आनेवाली बाई, या कुक, और वह भी corporate टाइप हैं, बक्शीश नहीं – एक महीने की सैलरी, मिठाई और इन्क्रीमेंट। और अब हमारे रिश्ते fixed नहीं रहे, सामान amazon से आता हैं, और कोई भी डिलीवरी करता हैं, खाना जोमाटो से, टैक्सी ओला से, मतलब हमारे रिश्ते हम इंसानो से ज्यादा मोबाइल apps से गहरे है।
सच बोले तो घर पे इस तरह लोगो का आना, irritating होता था। कई बार लगता था, की कितने सारे पैसे यही waste हो रहे है। यह क्या खामखा का कारोबा। मगर आज जब दीपावली के नाम पे सिर्फ, Whatsapp के फॉरवर्ड्स भर-भर के आते हैं, तो उन दिनों की याद ज़रूर आती हैं, जब हम एक-दुसरे से जुड़े हुए थे। मोबाइल फ़ोन की टू-टू से तो वो घर की घंटी भली थी — कोई होता तो था सामने जो आपके के लिए वक़्त निकलता था।